५८९ ॥ श्री जनमेजय जी ॥
चौपाई:-
नित्य क्रिया से छुट्टी पावै। मघुतर के दुई पात्र चवावै।
नेत्र रोग शिर रोग नशावै। तन मन प्रेम से हरि गुण गावै।
क्षुधा लगै तस करै अहारा। लखै न निज नैनन पर दारा।
अतिथि जवन कोई दुआरे आवै। यथा शक्ति जल पान करावै।
नात कुटुम्ब उपरोहित परजा। नौकर से मति लेवै करजा।
सत्य धर्म से समय बितावै। सो ग्रहस्थ हरि धाम सिधावै।६।
दोहा:-
जनमेजय कह मम बचन मानि चलै यह चाल।
वाकौ दुख दरिद्र एक नोचि सकै नहिं बाल।१।