५९७ ॥ श्री हरी दास जी ॥
पद:-
सतगुरु करि सुमिरन बिधि लेवै ध्यावै प्रेम से तन मन लाई।
जीभि हिलै नहिं गाल चलै नहिं रोम रोम धुनि नाम सुनाई।
अजपा यह है ब्रह्म की बानी सब में ब्यापक सबहिं बनाई।
या से ध्यान प्रकाश होत लय सुधि बुधि जहां न नेको आई।
सुर मुनि मिलैं सुनै घट अनहद क्या बरनै मुख बोल न जाई।५।
हर दम राम सिया की झांकी सन्मुख तेज के मध्य में छाई।
शान्ति दीनता दृढ़ विश्वास से सूरति शब्द में जबन लगाई।
हरी दास कहैं जियति जानि सो तन तजि कै साकेत सिधाई।८।