६२६ ॥ श्री विश्वनाथ सिंह जी ॥
दोहा:-
सतगुरु बचन को त्यागि कै गहै और को ज्ञान।
वा सम पापी और को यम के हाथ बिकान।१।
चौपाई:-
मंदिर बाग़ कूप फुलवारी, पोखर दान यज्ञ करै सारी।
इन सब से नहिं होय उबारा, सतगुरु द्रोह अथाह अपारा।
जे जन मान बड़ाई त्यागैं, सतगुरु बचन में तन मन पागैं।
ते जियतै मुद मंगल पावैं, ध्यान प्रकाश समाधी में जावैं।
सुर मुनि मिलैं बिहंसि बतलावैं, राम सिया सन्मुख छबि छावैं।
अनहद नाद सुनै वसुयामा, खुलै अखण्डित राम को नामा।६।
दोहा:-
विश्वनाथ सिंह की विनय, सुनौ गुनौ नर नारि।
सतगुरु बिन भव जाल से, कौन सकै निस्तार।१।