६८२ ॥ श्री फुरसत शाह जी ॥ (२)
पताका कीर्ति का अपने घुमालो जिसका जी चाहे।
पाय धन धर्म में सारा लुटा लो जिसका जी चाहे।
दीन दुखियों को जल भोजन करा लो जिसका जी चाहे।
सर्दी औ गर्मी के कपड़े पिन्हालो जिसका जी चाहे।
कराहते लखि उन्हें दारू पिला लो जिसका जी चाहे।५।
मूत्र मल साफ़ कर उनका परा लो जिसका जी चाहे।
अन्त बैकुण्ठ अपने को बिठालो जिसका जी चाहे।
कहैं फुरसत बचन सुनि मन बसा लो जिसका जी चाहे।८।