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७१५ ॥ श्री कुद्दन शाह जी ॥

पद:-

अभ्यन्तर से ररंकार धुनि जो होती दिन रात नहीं।

तब ही तक भव बन्धन भक्तों बकने की यह बात नहीं।

ध्यान प्रकाश समाधि अमी रस अनहद नाद सुनात नहीं।

सुर मुनि कैसे पूजैं हंसि हंसि सन्मुख जब पितु मातु नहीं।

नागिन चक्र कमल किमि चेतैं सतगुरू के ढिग जात नहीं।

कुद्दन शाह कहैं ते पावैं जे तनको अलसात नहीं।६।

 

दोहा:-

सन्त सहैं खल के बचन साधक सब के जान।

जे या बिधि जग में रहैं ते हों भक्त महान।१।