७७५ ॥ श्री काज़िम अली जी ॥
पद:-
श्याम मुख निरखैं यक टक श्यामा द्रगन द्रग जोर।
जैसे चकई शरद चन्द्र को चितवत सुधि बुधि छोर।
जैसे मीन के पीन प्राण हैं वैसे प्रिया के नन्द किशोर।
जैसे मोर के घन घन जीवन नाचत करि करि शोर।
जैसे चातक नेह स्वाति जल लागी तन मन डोर।५।
जैसे नट की सूरति बांस पर पनिहारिन घट ओर।
जैसे कामी के मन अबला सूझत नहिं निशि भोर।
जैसे लोभी धन पर तन मन सहत सबन की खोर।
जैसे रजक बसन नहिं भूलत सब के धरत बटोर।
जैसे चींटी खाक से चीनी काढ़ करत इक ठौर।१०।
जैसे गादुर शाख को थामे झूलत पवन झकोर।
जैसे होरिल अवनि पै उतरत पकड़ि काठ बर जोर।
जैसे सफरी नीचे से ऊपर करि सूरति गइ दौर।
जैसे खग मृग चरत औ चूंगत भूलैं नहिं निज ठौर।
जैसे वक्ता कहि समुझावत मन कसि बाँधत डोर।१५।
जैसे श्रोता सुनत चित्त धरि सूरति वक्ता ओर।
जैसे भ्रंगा कीट लाय घर बन्द करत एक ठौर।
तन मन प्रेम लगाय सब्द कहि देवै निज तन बोर।
पतिब्रता पति संग जिमि जरती नयनन आवत लोर।
जिमि सय्याद शिकार पै आशिक दोउ कर अस्त्र औ वोर।२०।
सूर समर सुनि होत खुशी जिमि करत अगारी दौर।
नेग हेत दूल्हा मंडप जिमि नहीं उठावत कौर।
जिमि अहि असिल न डुबकी मारत कितनो बारि हिलोर।
सिंह बिपिन में जिमि निर्भय होय करत शब्द घन घोर।
पुत्रवती जिमि पुत्र को चूमत प्रेम में तन मन बोर।२५।
कामिनि जिमि निज पति के सन्मुख शरम धरत सब छोर।
जिमि पतंग दीपक पर धावत नेक न मानत लौर।
प्राण त्याग दे प्रेम न त्यागे है यह कार्य कठोर।
जिमि भुजङ्ग मणि के बिन ब्याकुल प्राण तजत फन फोर।
अलल पखेरू जिमि सूरति से रहत अकाश की ओर।३०।
जैसे शाह को शुक्ल पक्ष प्रिय निशि अँधियारी चोर।
जिमि भौंरा नीरज पर आशिक पियत पराग निचोर।
लोभ में गृह की सुधि बुधि भूली बझि गयो फूल में भौर।
सन्ध्या भई कमल सम्पुट भा भौंर करत नहिं शोर।
प्रेम समाधि निशा भरि लागी छूटी होते भोर।३५।
नासा ज्ञान एक योजन तक भँवर लगावत दौर।
प्रेम सुगन्ध में तन मन अरपै तब पावै वह ठौर।
जैसे मकरी ताना ताने घूमि घूमि चहुँ ओर।
सूरति से क्या कार्य्य सँवारत नेक न भूलैं ठौर।
जिमि अहि कच्छप अण्डा सेवत सूरति की करि डोर।४०।
जिमि तन मन ते प्रेम लगाय के गिरगित खात शिहोर।
जैसे सूरति शब्द पै धरिये सुनिये धुनि टंकोर।
जैसे सुरमुनि ध्यान में दरशैं आनन्द हिये हिलोर।
जैसे महा प्रकाश दशा लय जहां मोर नहिं तोर।
जिमि हरि भजन बिना धिक जीवन हृदय भया कठोर।४५।
जिमि यह तन निज करिके मानत सो चलि बसिहै गोर।
सतगुरु बिन कोइ पार न होवै करि हम देखा गौर।
काज़िम अली कहै प्रिय प्रीतम पर मन अटका मोर।४८।
शेर:-
काज़िम अली है नाम मेरा शिष्य रामानन्द का।
हर दम मुझे दीदार होवै नन्द के फ़रज़न्द का।१।
जारी........