८०१ ॥ श्री बुन्नी शाह जी ॥
पद:-
हरि चरणों कि शरण से पार हो। जब तन मन से ताबेदार हो।२।
यह तन बिन भजन बेकार हो। जहां छूटै गरद गुब्बार हो।४।
यहां मन के बने सरदार हो। कहैं बुन्नी वहां मुखकार हो।६।
शेर:-
छार ह्वै जावेगा तन माया औ मन संग में रहै।
आशा औ तृष्णा को लिये फिर पकड़ि के तुम को डहै।१।
कर्म के अनुसार दुःख सुख यहां अरु वहँ पर सहै।
जब तक भजै हरि को नहीं किमि पार हो बुन्नी कहै।२।