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८०६ ॥ श्री मधई जी ॥


पद:-

जिसे सतगुरु ने सुमिरन की दी बूटी।

वही नर तन क भाई मज़ा लूटी।२।

श्याम श्यामा कि सन्मुख मे छबि जूटी।

छटा लखि लखि के हर दम अमी घूटी।

प्रेम तन मन से लागी भरम छूटी।

तब पापों के तापों से संग टूटी।६।

कहै मधई कठिन है यह भव खूंटी।

हरि पायो न तिनको करम फूटी।८।