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८४१ ॥ श्री सती जी ॥


पद:-

सती कहती मती मन की बिना सतगुरु के नहिं सुधरै।

इसी कारण से नर नारी जन्म चक्कर से नहिं उबरै।

झमेला बासनाओ का संग मन के सदा घुमरै।

लगै जब शब्द पर सूरति तो सब असुरन खिमा उखरै।

ध्यान धुनि नूर लय पाकर के फिर जग में नहिं हुँकरै।

रूप अनुपम रहै सन्मुख छकैं छबि दृग लखैं मुखरै।६।