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८४८ ॥ श्री रामा बाई जी ॥


पद:-

करो सतगुरु खुलै खिड़की, होय झांकी सिया हरि की।

बनै बैठे हो क्यों नरकी याद कीजै तो निजघर की।

ध्यान धुनि नूर लय सरकी, वही भव सिन्धु से टरकी।

जौन इस रंग में परकी, वही उपदेश दै तरकी।

चलैं जहँ नाम की फिरकी, जाय मन फिर कहां फरकी।५।

जहां में आय सो मरकी, फ़िक्र जिस को न इस जर की।

याद हर दम करो हरि की मिटै भय नर्क के दर की।

प्रेम तन मन में जेहि छरकी सो हो पितु मातु की लड़की।८।