८८० ॥ श्री मारते खां जी ॥
पद:-
काम क्रोध मद लोभ मोह जब शांति होंय दुख दाई जी।
तब तो पंच धुनी का तापब सुफ़ल होय मम भाई जी।
चौरासी धूनिन का तपना तब जानौ सुख दाई जी।
जब चौरासी के चक्कर से जीव बिलग ह्वै जाई जी।
चौरासी आसन सुख दायक जब हरि दर्श दिखाई जी।५।
पांचौं मुद्रा सिद्ध होंय जब पांच तत्व सुधि जाई जी।
चारों तन जब बेधन होवैं दृष्टि अदृष्टि समाई जी।
लै परकाश ध्यान धुनि पावै हर दम मंगल गाई जी।८।
चौपाई:-
नेती टीक तासु की जानो। जा की नेति एक रस मानो॥
धोती शुद्ध तासु की होवै। अंदर का जब कारिख धोवै॥
जल बस्ती ताकी सुख दाई। मृदुल बचन कहि दे समुझाई॥
कुंजल करि सब चोर भगावै। ताको कुँजल सिद्ध कहावै॥
नौ स्वर मूंद दसमको जावै। ताकी नेवली ठीक कहावै।५।
वीर्य उर्ध जाको ह्वै जावै। सीत उष्ण कछु नाहि सतावै॥
ताकी बजरौली सिद्धि सुनिये। जे जानहिं तिन से सिख गुनिये॥
कमल चक्र कुँडलिनी ज्ञाना। ब्रह्म दतून संत सोई जाना॥
अजपा जाप कहावै सोई। जिह्वा चलै न सुमिरन होई॥
अनहद बाजा तौन है भाई। जो घट भीतर बजत सदाई।१०।
ध्यान तासु को कहत लेव गुनि। नाना बिधि लीला हों पुनि पुनि।
कहत प्रकाश तासु को भाई। अमित सूर्य के सम द्युति छाई।
शून्य समाधि तौन कहवाई। जहँ सब सुधि बुधि जात हेराई।
जड़ समाधि महा शून्य कहावै। तन काटौ कछु होस न आवै।
सिर में प्राण बन्द सब नाड़ी। दसौं द्वार में लगी किवारी।१५।
जब संकल्प पूर ह्वै जावै। तब फिर प्राण उतरि तन आवै।
सहज समाधि तौन कहवावै। सन्मुख रूप सदा दरसावै।
शब्द नाम को कहत हैं जानो। सूरति ख्याल बचन मम मानो।
धुनी नाम की उठत करारी। हर दम एक तार रहै जारी।१९।
दोहा:-
रेफ़ बिन्दु जो बीज है, सब में सब से न्यार।
सतगुरु करि जो जानि ले, भव से होवै पार।१।
कहैं मारते खां सुनो, यहं जो जैस कमाय।
वैसे वाको वहं मिलै, दीन्ह्यो सत्य बताय।२।