८८१ ॥ श्री समुझावन खां जी ॥
चौपाई:-
मानस पूजा तीन प्रकारा। सो सुनि लीजै नर औ दारा॥
प्रथम तो मन से पूजन करना। भोजन जल मन ही से धरना॥
दूसर मन्दिर एक बनाना। ता में मूर्ति नहीं पधराना॥
हरि के हेतु पलंग बनवाना। ता पर बिस्तर सुघर बिछाना॥
ओढ़न हेतु वस्त्र सिलवाना। पहिरन हेतु बिचित्र बनाना।५।
भोजन भांति भांति बनवाना। सो सब तहँ पर लै धरि आना॥
जल झारी लै कर धरि देना। इतर फुलेल पान औ बैना॥
पीक दान दुइ एक चँवर तहँ। तकिया तीन पलंग पर हों तहँ॥
सब सामान साजि नित नेमा। मन्दिर बन्द करो करि प्रेमा॥
वहँ पर और न कोई जावै। यह सेवा दूसरि कहवावै।१०।
तीसरि पूजन सुनिये भाई। सुनतै तन मन अति हर्षाई॥
भोजन थार में जल धरि झारी। नैन मूंदि मन लेहु संवारी॥
देखो पाय रहे अविनाशी। श्याम गात पूरन सुख रासी।१३।
चौपाई:-
जैस कल्पना हो मन माहीं। वैसे निरखौ संशय नाहीं॥
प्रथम से प्रथम धाम में जानो। दूसर ते दूसर में मानो॥
तीसरि ते तीसरि में जाई। समुझावन खां कहत सुनाई॥
निर्विकल्प जब तक नहिं ध्याना। तब तक मिलै न पद निर्बाना॥
अगणित जन्म की होय कमाई। तब प्राणी या पद को पाई।५।
दोहा:-
समुझावन खां की बिनय, भजौ नाम बसुजाम।
धुनी ध्यान परकाश लै सन्मुख सीता राम।१।
अन्त समय हरिपुर बसै जो है अचल मुकाम।
समुझावन खां के बचन समुझि लेहु नर बाम।२।