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९०५ ॥ श्री दुर्गा दीन जी ॥


पद:-

मन तुम बड़े बेशरम भाई।

शुभ कामन के निकट न जाते अधरम में पतियाई।

ऐसी मति मलीन करि लीन्हीं जीव पार किमि पाई।

बड़ी डोरि पोढ़ी कर लीन्हे हर दम रह्यो घुमाई।

छल परपंच करत जल भोजन लागत नहीं थकाई।५।

बेद शास्त्र उपनिषद संहिता औ पुराण बतलाई।

सुर मुनि ऋषि जाको सब त्यागत तेहि तुम मेल मिलाई।

नाना नारिन को लै नाचत संग अविद्या माई।

किस चटशाला में यह विद्या पढ़ेव जाय दुख दाई।

अच्छा अब हम सतगुरु ढूढ़ि के राम मन्त्र लै आई।१०।

तब फिर भागि के जायो देखब कौन तुम्है लुकवाई।

सूरति के संग जोरि के तुमको शब्द में देंव लगाई।

ररंकार लैकर फिर तुमको ध्यान में दें पहुँचाई।

ध्यान से फेरि बढ़ावैं आगे शून्य में जाय बिठाई।

सुधि बुधि रहै न नेकौं वहं पर आप में आप समाई।१५।

वहां से फिर आगे हरि इच्छा महा शून्य दर्शाई।

महा शून्य से गऊ लोक चलि देखत हिय हर्षाई।

श्याम के अन्तर श्यामा सोहैं झूला पर छबि छाई।

बे आधार आपै तहं चलता पवन त्रिबिध लहराई।

कृष्ण लोक से आगे चलि साकेत पुरी में जाई।२०।

महा प्रकाश एक रस जानो निरखत ही बनि याई।

ता के मध्य ऊँच सिंहासन ता पर प्रभु सुखदाई।

आदि शक्ति अन्तरगत बैठीं शोभा वरनि न जाई।

अमित सन्त तहं यानन बैठे हरि के रंग चुप भाई।

हम तुम की जब होय एकता जावै द्वैत पराई।२५।

जियत में हर दम सन्मुख चितवो जनक लली रघुराई।

दुर्गा दीन कहैं सुनु मन अब छूट गई सब काई।

अन्त समय साकेत को चलिये चढ़ि बिमान पर धाई।२८।