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९१० ॥ श्री खेलाड़ी शाह जी ॥


पद:-

मन तू क्यों दुख देता मोको।

अतीसार संग्रहणी कीन्हे छिन छिन में मैं पोकों।

शुभ कामन में नेक न ठहरत क्या मिलता सुख तो को।

पांचों ठगन से नाता जोड़े करत रहत नित कों कों।

जनमत मरत साथ नहिं छोड़त रुधिर पियत जिमि जोंकों।५।

अपनी मति स्थिर कर ले तू बार बार मैं टोकों।

श्री सतगुरु से दीक्षा लेकर अब बच्चा तोहिं रोकों।

सूरति के संघ तोहि लगाय के शब्द में जाय के चोंकों।

धुनी ध्यान परकाश मिलाय के शून्य में लै फिर ठोकों।

सुर मुनि शक्तिन दर्श करावों दिखलावों सब लोकों।१०।

राम सिया को हर दम देखिहै उघरैं हिय के ढोंकों।

कहैं खेलाड़ी बन्धन छूटै तब सुख मोको तोको।१२।