९७. ॥ श्री शिवराज जी ॥
पद:-
बेदन ते शब्द होत स्वांस ते समाधि होत
त्रिकुटी ते ध्यान परकाश होत जानिये।
सतगुरु करि सिखौ अनुपम अमी चखौ
सीता राम हर दम लखौ बैन सत्य मानिये।
सुर मुनि दर्श देत हंसि हंसि गोद लेत
रहत न नेक द्वैत नेम टेम ठानिये।
शिवराज तन छोड़ि जगत से मुख मोड़ि
नित्य धाम नात जोड़ि लेव सुख खानिये।
दोहा:-
हरि सा रंग औ रूप हो मौन खान नहिं पान।
अचल धाम शिवराज कह ताहि जियति लो जान।
सबै बासना होंय गत तब वह पहुँचै जाय।
सतगुरु बिन शिवराज कह भेद नहीं कोइ पाय।४।