१८५ ॥ श्री शण्ठ शाह जी ॥
पद:-
निज सूरति शब्द में पपोहै हनी।
सोइ सतगुरु क सच्चा सेवक बनी॥
ध्यान परकाश लय में जाकर सनी।
नाम धुनि रूप पाकर होगा धनी॥
मिलै सुर मुनि कि नित प्रति आकर अना।
सुनै अनहद मधुर घट बाजै घनी॥
पियै अमृत गगन ते हर दम छनी।
तन तजि फिर वही अनमोल मनी॥