१९० ॥ श्री अड़बड़ शाह जी ॥
( २ )
दोहा:-
शून्य शिखर चढ़ि मन मस्यौ तब सब मरे चमार।
सतगुरु के परताप से, छूट्यौ जग ब्यौहार।१।
हरि सुमिरन बिन तन गयो, डारिनि चीरि चमार।
सतगुरु की जे शरनि गे, तिनकी जय जय कार।२।
लय समाधि में मन गयो, नवो द्वार करि बन्द।
सतगुरु की किरपा भई, छूटि गयो भ्रम फन्द।३।
मन समाधि में चढ़ि गयो, नव दरवाज़ा त्यागि।
सतगुरु भेद बताय दें, सो चट जावै भागि।४।
मन सुख सागर में रम्यौ, संगिन दीन्ह्यो छोड़ि।
सतगुरु मार्ग सुझाय दें, कौन सकै मुख मोड़ि।५।
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, कैसे होवै स्वच्छ।
जैसे पल्लव के बिना, नीक न लागत बृच्छ॥
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, सत्य मानिये तात।
जैसे गज सूनो लगै, गिरि गे दोनों दांत॥
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, काह भयो रहि मौन।
जैसे दीपक के बिना, रहत अंधेरा भौन॥
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, सस्यौ न अपनो काज।
जैसे राजा के बिना, पड़ी शून्य सब राज॥
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, कितनौ होवै मान।
जैसे सतगुरु के बिना, कथत बहुत जन ज्ञान।१०।
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, भा सूकर मल मुत्र।
जैसे अवला पुरुष दोउ, हैं उदास बिन पुत्र॥
हरि सुमिरन बिन तन बृथा, भयो आइ बरबादि।
जैसे बीज कि नाश हो, परै जहां गज खादि।१२।