२५१ ॥ श्री पण्डित बिचार दत्त जी ॥
बार्तिक:-
आगे हमारे कुल में ऋषि मुनि और उनकी पत्नियां सब फूस की कुटियों में रहतीं थीं। अपना निर्बाह बड़े आचार बिचार से। करते थे। कन्द मूल फल और अन्न भी सेवन करते थे। भोजन मृतिका के पात्र में बनता था। और कदली, पलाश बट, साखू, सागौन, बड़हर, बिजय सार पानी खम्भार और कमल के पत्तों पर परस कर और भोग लगाकर पाते थे। प्रेम से जो कोई अन्न या फल फूल देता था उसे ग्रहण करते थे। वेद पढ़ते और पढ़ाते थे। त्रिकाल स्नान और गायत्री सन्ध्या बन्दन करते थे। श्रद्धा प्रेम से जो कोई भोजन देता है वह भगवान ग्रहण करते हैं। यहां पर बिचार नहीं किया जाता है। भाव का दरजा सब से ऊँचा है। भाव के बिना सब ज़हर है। भाव होने से सब अमृत है। भाव से यदि अन्न चाण्डाल दे तो उसे पा लेना चाहिये। उस से बल और बुद्धि बढ़ती है। कुभाव से यदि ब्राह्मण दे तो उसके ग्रहण करने से बल बुद्धि हीन हो जाती है। यह बचन श्री राम जी ने और श्री कृष्ण जी ने कहा है जिनका सारा विश्व है। जे जन इन बचनों को समझ कर अमल करेंगे वे हमेशा सुखी रहेंगे और जे न मानेंगे वेअपने कर्मों के अनुसार फल पावेंगे। जब से पक्के मकानों में पढाई होने लगी तब से सब बर्णों का एक साथ में संर्सग हो गया। सव के सं
सकारो का एकत्व होने से बिचार आचार बिगड़ गये। पुत्रों ने माता पिता का भाव त्याग दिया। अपने संघ के पढ़ने वालों में अधिक प्रेम भर दिया इसी से हमारा भारत देश बिगड़ गया। परन्तु अब समय आ रहा है थोड़े ही दिनों में फिर सुधरेगा। मकान सिर्फ वशिष्ठ जी का कीमती पत्थर का श्री अवध पुरी में बना था क्योंकि वे श्री राम चन्द्र जी के कुल गुरु थे।