२५७ ॥ श्री सूर शाह जी ॥
पद:-
सतगुरु करै जप बिधि सिखै तब जीव फिर मंजूर हो।
परकाश ध्यान समाधि धुनि होवै हमेशा दूर हो।
अनहद सुनै अमृत पियै सुर मुनि मिलैं कहि सूर हो।
हर दम रहैं सिय राम सन्मुख छबि छटा से पूर हो।
दीनता औ शान्ति गहि जब छोड़ि दे मगरुर हो।५।
तन मन कि होवै एकता तब प्रेम में वह चूर हो।
असुरों क दल होवै बिदा शिर करके नीचा हूर हो।
तन त्यागि निज घर को चलै बाजै बिजय को तूर हो।
राम नाम मन से जपो जमा होय तब बित्त।
बाहर फेंके से कभी, शान्त होय नहिं चित्त।१०।