३०० ॥ श्री त्रिभुवन सिंह जी ॥
पद:-
जय जय कार होय दोनों दिशि जो कोइ हरि सुमिरन ले जान।
सतगुरु करै मिलै तब मारग खुलि जांय, आँखी कान।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि हर शै से ले तान।
सुर मुनि मिलैं सुनै घट अनहद करै अमी रस पान।
नागिनि जगै चक्र सब बेधैं कमल उलटि जांय मान।५।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख प्रगटैं आन।
सूरति शब्द क मारग यह है जो सब सुख की खान।
तन छूटै साकेत जाय लै जग छूटै जिमि दान।