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३४० ॥ श्री हवा शाह जी ॥


पद:-

उन्चास कोटि पृथ्वी पर हम सब अगणित बार मरे जन्मे।

नहिं योनि कोई छूटी बाकी तिल तिल घूमे सब जल थल में।

सतगुरु कि कृपा श्रुति नयन खुले फिर आय गये अपने दल में।

है वक्त मुकर्रर धीर धरो बिगड़ी हरि ठीक करैं पल में।

धुनि ध्यान प्रकाश समाधि मिलै फिर काहे गिरो दुख के नल में।५।

सब दिशि झाँकी नैनन सन्मुख सरिता गिरि पेड़ पान फल में।

बनि दीन रहौ तब होय गुजर कबहूँ मति भूलौ निज बल में।

नहिं ख्याल करो तो होय नरक यम छोड़ैं कसि गन्दे मल में।

ऊपर से खूब मरम्मत हो हर दम रोओ उस खल भल में।

तहँ कौन सहायक हो तुम्हारा अब हीं माते जग हल चल में।१०।