३७९ ॥ श्री गाज़ी मियां जी ॥ (२०)
शेर:-
बतसंग से सतसंग का रसता मिलै चट मानि लो।
लट संग से गाज़ी कहैं चल नर्क दुख की खानि लो।
पद:-
पढ़ि सुनि उपदेश करैं उमगैं औ आँसु बहाते हैं।
नर नारी सन्त भेष लखि कै चेला बनि जाते हैं।
नहिं ऊपर का है देश लखा हँसि गाल बजाते हैं।
धन लेना धर्म नहीं करना ऐसे मद माते हैं।
हैं नीच ऊँच बनि के डोलैं पूछैं गुस्साते हैं।५।
सुख खानि मिलै किमि हानि हानि दोनों दिशि ताते हैं।
रज वीर्य में फर्क पड़ा जानो ते जाति छिपाते हैं।
बहु जाति जनेऊ गले डारे कलि काल के नाते हैं।
सतगुरु करि सुमिरै राम नाम गाज़ी बतलाते हैं।
तन त्यागि चलैं निज धाम बसैं फिर गर्भ न आते हैं।१०।