३७९ ॥ श्री गाज़ी मियां जी ॥ (२१)
पद:-
किया सुमिरन नहीं हरि का भया रद्दी तेरा खाता।
बिना सतगुरु से बिधि जाने वहाँ कोइ पहुँच नहिं पाता।
जगत ठगने ठगाने हित पढ़ा कण्ठस्त करि गाता।
सुना तूने नहीं कबहूँ ये प्रभुको है नहीं भाता।
ज्ञान यह है आडम्बर का इससे प्रभू से नहीं नाता।५।
कमाई हाय यह कीन्हे पाप का सर धरा छाता।
मिला अनमोल नर तन क्या गर्भ की बात बिसराता।
अन्त तन छोड़ि ले जम पुर जहाँ तेरा न कोइ नाता।
हर समय दूत वहँ कूटैं कष्ट से तन रहै माता।
जवानी कै नशे में तू बचन अच्छे से रिसिआता।१०।
वहाँ पर कछु नहीं औरै हाय रे हाय चिल्लाता।
मूत्र मल का मिलै खाना पचै नहिं उलटि गिरि जाता।
कहैं गाज़ी मियाँ चेतो समय जाकर नहीं आता।
हमै तो दु:ख यही भारी भेष बदनाम करवाता।१४।
दोहा:-
चरन कमल श्री गुरु के, उर में लेहु बसाय।
गाज़ी कह फिर देर नहिं, भव का दुख मिटि जाय॥
पद:-
श्री गुरु रामानन्द जी ने मुझे चेला बनाया जी।
उठा कर शंख दहिना वर्त बिहँसि मुख से बजाया जी।
उसी क्षण श्रवण और आँखैं सुनो भक्तों खोलाया जी।
ध्यान धुनि नूर औ लय में जाय गोता लगाया जी।
आय कर राम सीता ने छटा सन्मुख में छाया जी।५।
देव मुनि सब मिलै आकर शीश पर कर फिराया जी।
जन्म भूमि मेरी काशी तुरुक के घर में जाया जी।
अजर औ अमर तन मेरा बड़ा आनन्द पाया जी।
कहैं गाज़ी मियां चेतो ये पद सब हित सुनाया जी।
लगा तन मन करो सुमिरन करै प्रभु तुरत दाया जी।१०।