३७९ ॥ श्री गाज़ी मियां जी ॥ (२७)
पद:-
सुरति निरत करै शब्द के संग में तब तो जीव सुखी है जावै।
सतगुरु बिन यह भेद मिलै नहिं पढ़ि सुनि कोई जान न पावै।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि सन्मुख राम सिया छवि छावै।
सुर मुनि मिलैं शीश कर फेरैं जै जै कार का शब्द सुनावैं।
अनहद सुनै बिमल घट बाजै अमृत पान करै मुसक्यावै।५।
कमल खिलैं चक्कर हों चालू कुण्डलिनी सब लोक दिखावै।
जियतै मुक्त भक्त सो जानो जो तप धन यहि भाँति कमावै।
गाज़ी कहैं अन्त तन तजि कै जाय अमर पुर जग नहिं आवै।८।