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३७९ ॥ श्री गाज़ी मियां जी ॥ (२६)


शेर:-

नाम की डोरि अति पोढ़ी बंधे सब लोक हैं जिसमें।

जीव अंधे व बहिरे हैं कहैं गाज़ी लखैं किस में॥


पद:-

हरि नाम सब का सार है जो भजै भव से पार है।

धुनि नाम की रंकार है हर शै से होत पुकार है।

निगुन सगुन निराकार है, सब में वो सब से न्यार है।

अनमोल तन नर क्यार है,जाने बिना बेकार है।

उस जीव को धिक्कार है, सिय राम का नहि प्यार है।

तन छोड़ि नर्क मँझार है, गाज़ी कहैं दुख भार है।६।


दोहा:-

गाज़ी कह सो भक्त है जाके आँखी कान।

अविनाशी की गोद में राजैं हर दम जान।

नाम रूप जा को मिल्यो गाज़ी कह सो भक्त।

अविनाशी की गोद में खेलैं तजि कै जक्त।

परजा से राजा भयो गाज़ी कह सो धन्य।५।

अविनाशी की गोद में रहत सदा पसन्य।

गाज़ी कह जियतै तरा पायो नाम औ रुप।

अविनाशी की गोद में, बनि कै बैठो भूप।

गाज़ी कह भक्तन चरित को करि सकै बखान।

वेद शास्त्र मुनिथ के महिमा कोऊ न जान।१०।