४१० ॥ श्री बाबू लाल जी ॥
पद:-
श्री मानस श्री गीता भजन का भौन हैं भाई।
करो सतगुरु पता पाओ बरनने में नहीं आई।
प्रेम औ भाव से भक्तौं मिलै आनन्द सुख दाई।
ध्यान धुनि नूर लै होवै तुरत बिधि लेख कटि जाई।
छटा सिय राम राधे श्याम की सन्मुख रहै छाई।५।
मिलैं सुर मुनि सुनो अनहद पिओ अमृत को हरषाई।
नागिनी जागि सीधी हो लोक सब जाय दिखलाई।
चक्र षट नाचने लागैं खिलैं सब कमल फर्राई।
जियति ही मुक्ति भक्ती लो जो बिधि हरि हरते है पाई।
अन्त तन त्यागि निज पुर में बैठिये बन के अस्थाई।१०।
चौपाई:-
सतगुरु करिके उर में धरना। प्रेम भाव से पढ़ना सुनना।२।
तब होवै जियतै भव तरना। बार बार का छूटै मरना।४।
खान पान सातुकि ही करना। चन्द रोज यहं पर है रहना।६।
नहीं तो होवै जग में ढहना। माया का यह भक्तौ गहना।८।