४११ ॥ श्री मुरली धर जी ॥
पद:-
गीता मानस गो घृत मक्खन। पावै दर्शै रूप बिलच्छन॥
गीता मानस गो घृत नैनू। पावै तुरत मिलै निज ऐनू॥
गीता मानस गो घृत मसका। पावै मिटै जगत का चसका॥
गीता मानस माखन मिश्री। पावै तुरत जाय घर घुसरी॥
गीता मानस गो घृत शक्कर। पावै जग का छूटै चक्कर।१०।
गीता मानस गो घृत हलुआ। पावै भागैं तन से छलुआ॥
गीता मानस गो घृत मेवा। पावै सतगुरु की करि सेवा॥
गीता मानस चारि पदारथ। पावै नहीं तो होय अकारथ।१६।