४१५ ॥ श्री धूर धुरंग शाह जी ॥
दोहा:-
लड़िकन को चेला करैं, होवैं जहां जवान।
इन्द्रिन को किमि साधि हैं करते पाप महान।
आधा गुरु को मिलत हैं, नर्क परै जब जाय।
चेला पीटैं पकड़ कै, रोये नहीं सेराय।
कहैं गुरु बनि ठगि लिहेव, लायो नर्क मंझार।५।
हम सब अब लै लेंयगे वाकी कसर निकारि।
जम चेलन की ओर हैं गुरु कि सुनै न कोय।
राखिन पहले ही रहै,बीज पाप का बोय।
अब पछताने होत का, कर्मन का है खेल।
बिन भोगे को बचि सकै, यह सिद्धान्त अपेल।१०।
बुद्धिमान वाको कहत जो बनि जावै घूर।
राम नाम गुरु पास ले, भजै जाय ह्वै सूर।
पढ़ ली गीता औ रामायन।
सतगुरु ने जब मोहिं पढ़ायो तन मन प्रेम लगायन।
सुन्दर सब के रूप प्रगट भे निरखि निरखि हरषायन।१५।
भगी अविद्या विद्या आई सुख के आँसू बहायन।
गद गद कंठ रोम सब पुलके मुख से बोलि न पायन।
नागिन जगी चक्र सब नाचे सातौं कमल फुलायन।
पिण्ड ब्रह्माण्ड से महक उड़ी तब मस्ती में बर्रायन।
धरनी पर परि बैठेन लोटेन कर पग सीस हिलायन।२०।
सिया राम प्रिय श्याम की झाँकी अदभुत सन्मुख छायन।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि हरशै से सुनि पायन।
गीता रामायण की चरचा सब लोकन लखि आयन।
यह दोउ माता सब सुख दाता कर उठाय गोहरायन।
इनही से निस्तार भयो मम या से हृदय बसायन।२५।
अस सुन्दर क्या समय मिला है मानो सत्य सुनायन।
अजर अमर तन भयो हमारा यहि को बांटेन पायन।२७।