४३१ ॥ श्री तरजन शाह जी ॥ (२)
चौपाई:-
चाव से चबे सुदामा के चाउल। भाव ही में हरि रहते बाउल॥
कर्मा की खिचड़ी नित खायो। भाव जानि प्रभु बिलम्बन लायो॥
मलूक दास का टुकड़ा पायो। भाव निरखि हरि हृदय लगायो॥
सड़ा भात रघुनाथ का जूठा। छीनि खांय हरि कहैं अनूठा॥
हैं ह्वैगे हैं हैं जग माहीं। ऐस भक्त प्रभु के ढिग जाहीं।१०।
भक्तन को पहिचानै सोई। जा पर हरि की किरपा होई।
हरि के रंग में जो रंग जावै। ता को सब दिसि वही दिखावै।
तरजन कहैं गरीबी धारो। सतगुरु करि भव लात से टारौ।१६।