४५१ ॥ श्री अरिष्ट शाह जी ॥ (२)
चौपाई:-
प्रेम भाव का खेल है न्यारा। प्रेम भाव है हरि का प्यारा।
प्रेम भाव से खुलैं केवारा। प्रेम भाव है मोक्ष क द्वारा।
प्रेम भाव नैनों का तारा। प्रेम भाव आनन्द दुलारा।
प्रेम भाव से मन है हारा। प्रेम भाव से होत दिदारा।
प्रेम भाव से ध्यान को धारा। प्रेम भाव परकाश पसारा।५।
प्रेम भाव लय जाय बिठारा। प्रेम भाव विधि लेखको टारा।
प्रेम भाव विश्वास संवारा। प्रेम भाव साकेत बिठारा।
प्रेम भाव सुर मुनि हिय धारा। प्रेम भाव सब कार्य संभारा।
प्रेम भाव षट चक्र सुधारा। प्रेम भाव नागिनिहु सकारा।
प्रेम भाव सब कमल उलारा। प्रेम भाव अनहद को सारा।१०।
प्रेम भाव अमृत की धारा। प्रेम भाव सब तत्वन गारा।
प्रेम भाव से हो झँकारा। रफ़ बिन्दु की धुनि रंकारा।
प्रेम भाव सब गुनन में ढारा। प्रेम भाव है सत्य क आरा।
प्रेम भाव की बालि दुधारा। प्रेम भाव सुख शान्ति पनारा।
प्रेम भाव संतोष खरारा। प्रेम भाव ही करत उबारा।१५।
प्रेम भाव है बड़ा सुतारा। जियतै उतर जाव भव पारा।
प्रेम भाव का चरित अपारा। को कहि सकै शेष हिय हारा।
या से मानो बचन हमारा। सुमिरन में लागौ निसि बारा।
सतगुरु करि के नर औ दारा। आलस पर मारो हथियारा।
कहते शाह अरिष्ट पुकारा। प्रेम भाव प्रभु रूप में ढारा।२०।