४५२ ॥ श्री मोहम्मद हाजी ॥
पद:-
हे हरि। मोरे घर मौताजी।
चोरन सब धन लीन हमारा बांधै बैठि नराजी।
हर दम घात लगाये रहते ऐसे हैं यह पाजी।
मन को हम से फोरि लिहिन हैं उन्हीं के संग राजी।
जौनी बिधि हरि आप बतावो, वा विधि जीतैं बाजी।५।
इनको जनम कैदि करवावैं खाय कमावैं भाजी।
सब की दौर जाय तब छूटी ह्वै जांय कूकुर भाजी।
तब हम घर को फेरि संभारैं ह्वै जाँय पूरे काजी।
सतगुरु देहु बताय कृपा निधि दैहैं वै फिरि साजी।
नाम का हवन जहां करवावैं सब घर जावै मांजी।५।
सुर मुनि सब के दरशन होवैं जो सतसंग समाजी।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि रूप पाय हम गाजी।
यह पद पढ़ि सुनि श्री गुरु चरनन रज लेवैं दृग आंजी
वै सब भक्तों जियतै तरिहैं उन्हीं को ये छाजी।
भोजन हेतु जौन कोइ आवै, प्रेम से दै हैं खाजी।
नेकहु चुकै न बढ़तै जावै, कहैं मोहम्मद हाजी।११।