४६३ ॥ श्री चतुर शाह जी ॥
दोहा:-
पक्षी ऐसा एक है, जा के हाड़ न मास।
उड़त लखत कोई नहीं, रहे आस ही पास।
केसन के बस्तर बनै ओढ़ै तौन हुलास।
कवि कोविद औ सुर मुनी, पावैं वा को मास।
सोरठा:-
जीव न मारै कोय, मरा मांस लावै नहीं।
गुनी जानिये सोय, बिना मांस आवै नहीं॥
दोहा:-
चातुरता या में भरी, समुझै चतुर सुजान।
चतुर शाह कह भजन बिन, मिलै न पद निरवान॥