४६४ ॥ श्री प्रेमी शाह जी ॥
भगवान के भक्त जौन प्रेमी उनका तन मन खुद बनि जाते।
वै हर दम हरि के संग रहैं औ खेल करैं खुब बतलाते।
ध्वनि ध्यान प्रकाश समाधी हो शुभ अशुभ कर्म सब जारि जाते।
अमृत पीवै घट साज सुनै सुर मुनि आवैं हरि यश गाते।
नागिन जागै सब चक्र सुधैं सब कमल खिलैं खुशबू पाते।५।
कोइ दीन भिखारी आय जाय जप भेद उसे हैं सिखलाते।
प्रेमी कहैं अन्त चलैं निजपुर फिर गर्भ बास में नहिं आते।
यह मारग सूरति शब्द का है सतगुरु किरपा निधि बतलाते।८।