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॥ श्री शंकर जी की प्रार्थना ॥(६)

देव देव महादेव कीजै अब दाया।

अंगन प्रति हैं भुजंग, राजत है जटा गंग, चरचित है भस्म अंग,

भाजत लखि माया।

गले सोहैं मुण्डमाल, दुतिया को चन्द्र भाल, लोचन हैं लाल लाल,

काल को हटाया।

बाँधे कटि व्याघ्र चर्म, मखमल सम नर्म नर्म, निर्भय नहिं शर्म-भर्म,

राम नाम भाया।

सन्मुख सिया राम रुप, अद्भुत छबि है अनूप, भूपन में सब के भूप,

हर दम है छांया।५।

 

बांये दिशि उमा राजैं,कर में तिरशूल छाजैं, डिमक डिमक डमरू बाजैं,

भंग ज़हर खाया।

नन्दीश्वर सुकुल सोहैं, गणपति तन लाल सोहैं, बीरभद्र भैरव हैं षट

मुख जी श्याम श्याम, देखत बनि आया।

बट के तर रहै राज, सुर मुनि सुख लें समाज, बाहन गण गाजि गाजि

हरि हर जस गाया।

काशी कैलास, बास, सब दिशि हैं सब के पास, पाप कर्म करत नाश,

अजर अमर काया।

वेदन का जौन सार, कहते जेहि र रंकार , निर्गुन औ निराकार, सोऽहं

औ ओंकार जिसने प्रगटाया।१०।

 

बाजत जो निर्विकार, हद्दौ बेहद्द पार, सब में औ सब से न्यार, जारी

धुनि एक तार, सब पर है साया।

आपै लखि बिमल तात, दीन्ह्यौ है जगत मातु, वाको प्रभु काति काति,

बाँटत हौ दीन जानि, ऐसा मन भाया।

माँगत हौं वही चीज होती जो नहीं छीज, चोरन को देव मींज, गुदरी

अब रही भीज, निपटी किमि बकाया।

करली हरि से करार, गर्भै में बार बार, गावौं मैं जस तुम्हार, दीजै

मोको निसारि, जगत में भुलाया।

झूँठी जो हो करार, जनम मरन बार बार, जियतै जो ले सुधार,

जननि सुत कहाया।१५।

 

सुनि कै गुनि लेय बैन, त्यागै सब जग के धैन, सतगुरु के चरन ऐन,

हिरदय में बसाया।

वाके सब सरैं काज, जोगिन में जोगिराज, सन्मुख राजाधिराज

त्रिभुवन की छाया।

झाँकी की छबि अपार, शारद औ शेश हार, निरखत जो एक तार,

जीवन फल पाया।

ऐसा दरबार पाय, जाँचन केहि द्वार जाय, बिनवै जश गाय गाय

उर में लपटाया।

अंधे की जो पुकार, सुनिये दानी उदार, दीजै मोको संभार,

चरन शरन आया।२०।