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॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥(९)

पद:-

मत चुनौ बुराई किसी की तुम। मत सुनो बुराई किसी की तुम॥

मत गुनो बुराई किसी की तुम। मत धुनो बुराई किसी की तुम॥

अंधे कहैं तब पट खुलि जावें। बस इसी से नीचे गिरे हो तुम॥

सतगुरु करि के सब भेद लेव। हौ कहां से आये को हौ तुम॥

शुभ कामन में साधक जुटते। जो सधता करते रहते गुम॥

धुनि नाम तेज लै रूप पाये। निज धाम गये नहिं गरिते भुम।६।

 

पद:-

भगवान क सुमिरन सही वही जब और न कोई आसा।१।

तब सारे पाप माफ़ होवैं धुनि नाम समाधि प्रकासा।२।

सतगुरु बिन मिलै नाहीं यह पद सुर शक्ती ऋषि मुनि भाषा।३।

अंधे कहैं दोनों दिसि राजो श्री जगत मातु पितु पासा।४।

 

शेर:-

अभी तो पापों के शौक करते शुमार इसका नरक में होगा।

कहैं ये अंधे जनम के कन्धे चलोगे जिस दिन खुलैगा ढोंगा॥

 

पद:-

दिल में भरे हज़ारों खुटका कैसे खुलै भजन का खटका।

सुमिरन करने जैसे बैठो चोर लगावैं झटका।

मनुवां उनके संग में अटका फिरता पाप करम में भटका।

सतगुरु के ढिग नाम क लटका लै कर फोरो भरम क फटका।

अनहद बाजा सुनिये चटका अमृत जाय गगन में घटका।५।

 

नाम कि धुनि परकास समाधी कर्म शुभा शुभ पटका।

सुर मुनि मिलैं नागिनी जागै कमल चक्र हों टटका।

सन्मुख हर दम दर्शन लीजै श्याम मनोहर नटका।

मुरली कूकि के गान सुनावै नैन सैन करि मटका।

सखा सखी प्रगटैं संग नाचैं बार बार करि तटका।१०।

भांति भांति के भोग मिलत नित बिहंसि बिहंसि के गटका।

अंत त्यागि तन अवध में राजै बहुरि न जग में सटका।

अंधे कहै अंत निजपुर हो बहुरि न जग में सटका।१३।