॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥
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कहैं अंध शाह सतगुरु की दया जो कड़ा न हुआ सो बड़ा ही रहा।२।
है तिरगुण का यह खेल कठिन जो जड़ा न हुआ सो सड़ा ही रहा।३।
सुमिरन बिन कौन गया घर को जो अंडा न हुआ सो छंडा ही रहा।४।
पद:-
कहैं अंध शाह सतगुरु की शरण जो लढ़ा नहीं वह गढ़ा हुआ।१।
है वाक्य ज्ञान अभिमान सना जो चढ़ा नहीं वह पढ़ा हुआ।२।
यह नाटक हरि का है बिचित्र जो मढ़ा नहीं वह बढ़ा हुआ।३।
या से भक्तों प्रभु नाम जपो जो कढ़ा नहीं जम ढढ़ा हुआ।४।
दोहा:-
दर्द दूसरे की नहीं समझें नर औ बाम।
अंधे कह ते हैं पशू पहिरे मानुष चाम।
मन शुभ कारज में लगा जीव का भा कल्याण।
अंधे कह सुर मुनि बचन वेद शास्त्र परमाण।
पाप कर्म में मन रमा जीव नर्क को जाय।
अंधे कह सुर मुनि बचन वेद शास्त्र बतलाय।६।
पद:-
मन में बुराई है भरी तन से दुराई हो नहीं।१।
अंधे कहैं इस सखुन को पढ़ि गुणि के माने को नहीं।२।
दाया धरम के आचरण जिस में न होंगे सो नहीं।३।
जग जाल से छूटैगा किमि है श्रवण नैना तो नहीं।४।
पद:-
परधी पड़ना है बड़ा पाप कोइ अपना किसी से दु:ख कहै।१।
कहैं अंध शाह यह जग का खेल कोइ तन ते नित भोग चहै।२।
साधक के लिये यह ठीक नहीं तन त्यागि के जग में फेरि ढहै।३।
जे मान लें सतगुरु कि बानि ते आदि अंत में सु:ख लहैं।४।
पद:-
न हो मुचिलका न हो ज़मानत जमा अमानत न नाम की है।
कहैं यह अँधे करम मुताबिक़ सज़ा नरक में बसु-जाम की है।
बग़ैर सुमिरन के मन की नारी मरैगी कैसे जो बद काम की है।
करो तो सतगुरु पता लगै तब मिली यह काया शुभ चाम की है।
धुनि ध्यान लय तेज हो चमाचम सन्मुख में झांकी सिया राम की है।
तन त्यागि करके चलै जहां से जनम कि भूमी सुख धाम की है।६।
पद:-
सतगुरु से सुमिरन बिधि जानि कै लखौ नुमाइसि नित्य नई।१।
ध्वनि परकास दसा लै होवै कर्म रेख को मेटि दई।२।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख झाँकी आय छई।३।
अंधे कहैं अन्त में निज पुर हो दोऊ दिसि जै जै कार भई।४।
पद:-
सतगुरु तै करि मंत्र को लै कर पाप कि छै कर बंस कि सै कर।१।
गूंगे ह्वै कर अंधे ह्वै कर बहिरे होकर कर्म बिजै कर।२।
दया को गहि कर धर्म कि जै कर मन संग लै कर नाम पै दै कर।३।
नेक न भय कर शर्म कि कै कर अंध कि सुनि कर तन तजि
चल घर।४।
दोहा:-
दस टेशन तन में बनीं कैसे हो असवार।१।
अंधे कह सतगुरु बिना टिकट मिलव दुशवार।२।
पद:-
ध्रू तारा सुखमन में रहेता जो गिराज शिव के पग गहेता।
भक्तन हित अमृत को ढहेता जे पीवैं उनको खुब चहेता।२।
दुःख सुःख को सम करि रहेता सो जानो फिरि जक्त न बहेता।३।
अंधे कहैं बचन पे गहेता सो तन तजि हरि पास में रहेता।४।
पद:-
मनमति कुमति कि संगति कीन्हा।
सतगुरु से ले जानिं सुमति मति चढ़िये सातौं जीना।
तेज समाधि नाम धुनि होवै र रंकार परवीना।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सिंहासन आसीना।
हर दम सन्मुख दरसन देवैं सुर मुनि कहैं कुलीना।५।
अनहद सुनौ बन्द नहिं होवै अमृत का हो पीना।
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