॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥
जारी........
दोहा:-
भजन कि बिदि नहि जानत वक्ता झूठे जान।
अंधे कह वहि तारोंगे प्रभु रुठै हैं मान॥
दोहा:-
सुर मुनि शक्ती भक्त सब बिनै सुनो यह मोर।
अधे को आसिष मिलै भजन करै मन जोर॥
पद:-
जै पिता राम जै सिया मातु। जै पिता श्याम जै प्रिया मातु।२।
जै पिता बिष्णु जै रमा मातु। जै पिता संभु जै उमा मातु।४।
जै पिता ब्रह्मा जै सारदा मातु। अंधा दीन है तुमरो तातु।६।
पद:-
सीता के श्वामी जै। राधे के श्वामी की जै।२।
कमला के श्वामी की जै। गिरिजा के श्वामी की जै।४।
सारद के श्वामी की जै। अंधे पर दया कीजै।६।
दोहा:-
सतगुरु राम को जानिगे या से भये महान।
अंधे कह सुर मुनि सबै करत बड़ा सन्मान॥
चौपाई:-
करत बड़ा सनमान भजन की बिधि बतलावैं।
ध्यान प्रकास समाधि नाम धुनि रूप लखावैं।
नागिनि चक्र जगाय कमल सारे उलटावैं।
अनहद नाद सुनाय अमी रस पान करावैं।
सुर मुनि आवैं मिलन नाम जस संग में गावैं।५।
गद गद होवै कंठ रोम सारे पुलकावैं।
तन कांपै सर हिलै नैन दोउ जल बरसावैं।
अंधे कह तन त्यागि यान चढ़ि निजपुर जावैं।८।
दोहा:-
तन को सो धनि कीजिये सतगुरु से विधि जान।
सार वस्तु पासै मिलै अंधे कह लो मान॥
सतगुरु बचन पै जाय तुलि वही कहावै शिष्य़।
अँधे कह जियतै तरे छूटी भव की मिष्य।
सतगुरु बचन को लीन गहि ते भे चेला सूर।
अंधे कह तरि मरि गये दोनो दिसि मशहूर।
शरनि इसी को कहत हैं जियतै करतल कीन।५।
अंधे कह सतगुरु कृपा नाम रूप में लीन।
सतगुरु वाक्य पै चलि गये वही कहावे वीर।
अंधे कह हर दम लखै सन्मुख सिय रघुवीर।८।
पद:-
मन तो अपने मन का करता।
अंधे कहैं जीव किमि उबरै फिरि फिरि जन्मत मरता।
या की मति ऐसी मलीन है पाप से पेट न भरता।
शुभ कर्मन को सुनै न देखै काटि खाँय अस डरता।
सतगुरु करै भजै निशि वासर सो जियतै में तरता।५।
अमृत पियै सुनै घट अनहद सुर मुनि के पग धरता।
ध्यान प्रकास समाधि नाम धुनि कर्म शुभा शुभ टरता।
नागिनि चक्र कमल सब जागैं चौदह लोक में फिरता।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख झाँकी ठरता।
अंत त्यागि तन जाय अवध पुर फेरि गर्भ नहिं परता।१०।
दोहा:-
पढ़त सुनत वेदांत है पाले सानव मान।
अंधे कह छूटै नहीं गर्भ केर लटकान॥
राम कृष्ण औ विष्णु में रहते शिव लवलीन।
सत्यम शिवम् सुन्दरम मानस पर लिखि दीन॥
जारी........