॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥
जारी........
उनके संग नाचत फिरै जीव होय किमि पार।
बिन सुमिरन छूटै नहीं यह माया का भार।
अंधे कह विश्वासकरि जुटौ होय जरि छार।
जब मन आवै पास में नाम पै देय लगाय।
जिस दिन गोता मारि है तब नहिं अन्तै जाय।१०।
पावै नाम औ रूप जब हर्ष न हृदयँ समाय।
तब सच्चा दीवान बनि करै खूब सेवकाय।
इस बिधि ते मन होय बस याकी यही उपाय।
अंधे कह मानो बचन ठीक दीन बतलाय।
भागा भागा मन फिरै जीव अभागा होय।
अंधे कह जब संग रहै तब किमि नागा होय।१६।
पद:-
बनि गयो यहां नालायक हो। जमपुर में कौन सहायक हो।१।
सतगुरु करि अब सुख दायक हो। अंधे कहैं जियतै लायक हो।२।
दोहा:-
साधक के लगि जाय जब नाम कि धुनि की चोट।
अंधे कह मानो भयो राम श्याम की ओट।१।
राम नाम सतगुरु दियो जप्यो न तन मन लाय।
अंधे कह वै जीव जग बार बार चकराय।२।
पुर जन नाते दार सब मित्र सकल परिवार।
सब मतलब के जानिये यह असार संसार॥
जब तक चीकन चाम है धन कमाय ठगि लाय।
तबही तक सब हैं भले, अन्त संग को जाय॥
स्वांसा बाहेर जस भई, भौन से दें बिलगाय।
अब कोई नहिं है सगा, लेय अचार बनाय।५।
सरिगा सरिगा सब कहैं, देर होय गन्धाय।
काढ़ौ बाहेर ले चलो फूंकि देव दुख जाय॥
की धरती में गाड़िये की जल देव बहाय।
की मैदान में डारिये, गीध श्वान लें खाय॥
अंधे कह सब वहां पर यही रहे बतलाय।
निज कानन ते हम सुना, सत्य मानिये भाय।८।
पद:-
पकड़ौ राम भजन की गल्ली।
सतगुरु करिके भेद जानि लो तब दिल होय तसल्ली।
सुर मुनि आवैं तन हरषावैं, रहि रहि करै उछल्ली।
लै परकास धुनी क्या होवै, हाँड़ रोम रग नल्ली।
सन्मुख कौशल्या के नंदन, संग सुनैना लल्ली।
मुक्ति भक्ति जियतै में मिलिगै, अंधे कह घऱ चल्ली।६।
शेर:-
खुदी छोड़ो खुदा पासै, बिना मुरशिद के नहिं भासै।
कहैं अंधे जगत आसै, पकड़ि के तुमको फिर नासै।
दोहा:-
ऐसी लगन लगाइये जैसे लासा जान।
अंधे कह चिड़ियां फँसै छूटि सकत नहिं मान॥
पद:-
मन मक्कर करता काहे।
गर्भ में कीन करार भजन का सो काहे न निबाहे।
सारो खेल हमार बिगारा ऐसा बे परवाहे।
कुवाँ ताल सरिता गिरि सागर थाहे और अथाहे।
छिन भर में तू वहाँ जात है जहाँ न कोइ राहै।५र्।
ऐसा तू बलवान चलैया लम्बे पग औ बाहैं।
नीक जीव तुझे नहिं मानत खाली चूखा चाहैं।
अंधे कहैं भजो सतगुरु करि तब यह रहै पनाहे।८।
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