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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१३)


पद:-

जलसा तमाशा हर समय घट ही में अपने हो रहा।

सतगुरु से मारग जान लो क्यों मोह नींद में सो रहा।

अनमोल तन श्वाँसा समै बेकार ही में खो रहा।

आखिर में फिर पछितायगा यह पाप बीज को बो रहा।

धर्म धन का नाश कर मल मूत्र में सुख टो रहा।

अंधे कहैं मानो बचन चेतो यहाँ पर को रहा।६।