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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२९)


पद:-

मन हमका अब धमकावो ना हम सरनि लेंय श्री सतगुरु की।

तब आय के हमरे कर जुरिहौ, औ बार बार चरनन परिहौ,

तब आपै छूटि जाय घुरकी॥

धुनि नाम प्रकास समाधि परै, तुमको संग लैकर जियति तरै,

फिर कौन गहै हमरी चुरकी।

सन्मुख षट रूप सदा राजै, सुर मुनि नित आय मिलैं गाजैं,

अंधे कहैं गर्भ न फिर ढुरकी।२।