१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(३०)
पद:-
मन हमका अब कलपावो ना अब सतगुरु करि तुम का पकरब।
तुम कपटी बड़े भगइया हौ, छिन छिन में करत कुदैय्या हौ,
अब नाम के संग तुम का रगरब।
धुनि ध्यान प्रकास समाधि पाय, सन्मुख में झाँकी छइउ छाय,
तब भूलि जाय तुम्हरा अकड़ब।
तब बादशाह हमको कहिहौ, साँचे वजीर बनि के रहिहौ,
अंधे कहैं हटे गर्भ जकड़ब।४।
दोहा:-
हितैषी नाम है हरि का देव मुनि नित जिसे भजते।
कहैं अंधे लगै तन मन प्रेम तब तो जियति तरते॥