१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (१५७)
पद:-
रूप रस गंधि बिकारों से जिन्हैं बाहर कहते।
नाड़ी नस आदि के बंधन से बिलग भी रहते।
प्रेम बस भक्त संग खेलते खाते गहते।
अन्धे कहते हैं मुक्त भक्त जक्त नहिं ढहते।४।
पद:-
रूप रस गंधि बिकारों से जिन्हैं बाहर कहते।
नाड़ी नस आदि के बंधन से बिलग भी रहते।
प्रेम बस भक्त संग खेलते खाते गहते।
अन्धे कहते हैं मुक्त भक्त जक्त नहिं ढहते।४।