२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२१४)
दोहा:-
प्राण में जीव क बास है जीव में आतम जान।
आतम में परमात्मा अन्धे कहैं समान॥
रेफ़ बिन्दु की जाप को सतगुरु से ले जान।
ध्यान प्रकाश समाधि हो रूप से हो पहिचान॥
अजपा जाप को जान लो खुलि जाँय चारौं द्वार।
मुक्ति भक्ति जियतै मिलै अन्धे कहैं पुकार॥
शब्द में सूरति जब पगी भई बासना नास।
अन्धे कह हर दम मगन छूटी भव की त्रास॥
मोरि तोरि मय तैं नहीं भीतर बाहर एक।
अन्धे कह धुनि नाम की सब को डारयौ छेंक।५।
नाम कि धुनि परकास लै रूप सामने छाय।
अन्धे कह सो भक्त है सुर मुनि करैं बड़ाय॥
भाल में श्री हरि भक्ति का देवैं तिलक लगाय।
दुलरावैं मुख चूमि कै अन्धे कह हर्षाय॥
हरि चरित्र भक्तन चरित्र पढ़ै सुनै मन लाय।
अन्धे कह तन छोड़ि कै हरि पुर पहुँचैं जाय॥
बार बार सुर मुनि कह्यौ मिलै न ऐसा बार।
अन्धे कह हरि भजन बिन नर तन को धिक्कार॥
राम नाम की चोरी डाका बिरलै जानै कोय।
अन्धे कह जो जान ले मुक्त भक्त हो सोय।१०।