२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२१३)
दोहा:-
सतगुरु से बिधि जानि कै पियो नाम की चाह।
अन्धे कह जियतै मिटै जनम मरन की दाह॥
सतगुरु से सुमिरन सिखौ सबै पदारथ पास।
अन्धे कह चेतत नहीं कटै न भव की फांस॥
राम कृष्ण औ बिष्णु जी तीनौ शक्ती साथ।
अन्धे कह सतगुरु शरनि सूरति शब्द में पाथ॥
सुर मुनि शक्ती सब मिलैं सिर पर फेरैं हाथ।
अन्धे कह जै जै करैं जियतै होहु सनाथ॥
सुमिरन ऐसा कीजिये और न जानै कोय।
सतगुरु से उपदेस लै सूरति शब्द समोय।५।
सरगुन तन में रहत हैं निरगुन कथते ज्ञान।
अन्धे कह वै मन मुखी छूटा नहि अज्ञान॥
निर्गुन सरगुन एक हैं या में भेद न कोय।
अन्धे कह वै मानिहैं जिनकी छूटी दोय।७।
चौपाई:-
जिनकी छूटी दोय जियति में वै हैं जागे।
सतगुरु शरनि से शांति दीन बनि भजन में लागे।
नाम कि धुनि परकास समाधि में जाय के पागे।
अन्धे कहैं सुनाय छोड़ि तन निजपुर भागे।
सिया राम प्रिय श्याम रहत हैं उनके आगे।
सुर मुनि आय के देंय दिब्य भोजन बिन माँगे।६।