२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२३१)
पद:-
सुरति शब्द लगै एकतार।
सतगुरु करि यह भेद जानि कै निज को लेहु सुधार।
इसी से अनहद घट में सुनिये मधुर मधुर गुमकार।
इसी से अमृत गगन में पीजै हर दम बहती धार।
इसी से सुर मुनि दर्शन देते उर लगाय करि प्यार।५।
इसी से कुँडलिनी संग चलती सब लोकन दीदार।
इसी से षट चक्कर हों सोधन सातों कमल फुलार।
इसी से उड़ै तरंग बहुत बिधि तन मन हो मतवार।
इसी से गद गद कंठ जात ह्वै नैन बहै जल धार।
इसी से शीश बदन सब हालै रोम रोम पुलकार।१०।
इसी से ध्यान समाधी होवै तेज धुनी रंकार।
इसी से अपने इष्ट को देखो सन्मुख हैं निशिबार।
इसी से अन्तर ध्यान जाव ह्वै कोइ न सकै निहार।
इसी से परकाया प्रवेश हो चोर जाँय सब हार।
इसी से नर नारिनि बतलाइ क जियतै दीजै तार।१५।
इसी से अजर अमर ह्वै जावै मृत्यु लात से टार।
इसी से कर्म रेख मिटि जावै बिधि जो लिखा लिलार।
इसी से आदि शक्ति श्री सीता शिव को दीन संभार।
इसी से पवन तनय को श्री सिय करि कै दीन दुलार।
इसी से ज्ञान दशा विज्ञान हो खुलते चारौं द्वार।२०।
इसी से कितने भक्त जक्त भे को करि सकत शुमार।
इसी को सुर मुनि जानि मानि कै जग हित कीन प्रचार।
इसी से मुक्ति भक्ति है मिलती प्रेम भाव ज़रदार।
इसी से शाँति शील संतोष औ सरधा छिमा ज्वहार।
इसी से दाया सत्य धर्म विश्वास दीनता धार।२५।
इसी को राम श्याम नारायण बरन्यो बड़ा सुतार।
इसी से अन्त छोड़ि तन चलि कै बैठो भवन मँझार।
इसी से चार पदारथ मिलते वा की शक्ति अपार।
इसी से मन की बात जाइ खुलि जो कोइ करै बिचार।
इसी से निर्गुण सरगुण जानो इसी से हो निराकार।३०।
इसी से जल भोजन औ बस्तर सादा हो सब क्यार।
इसी से साधक सिद्ध जाय ह्वै अंधे कहैं पुकार।३२।
दोहा:-
राग हटा अनुराग भा आइ गयो वैराग।
अंधे कह सब बासना गई आप ही भाग॥
भीतर बाहर एक रस तब भक्तौं भा त्याग।
अंधे कह सो मुक्त है बांधे भक्ति की पाग॥
ज्ञान भक्ति दोउ एक हैं जानै बिरलै कोय।
अंधे कह जे जानिगे आवागमन न होय॥
द्वैत क फाटक जब हटै ज्ञान भक्ति तब होय।
अंधे कह सतगुरु शरनि सूरति शब्द मिलोय।४।