२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२३३)
पद:-
है चन्द रोज़ की ज़िन्दगी सुमिरन करो सुमिरन करो।
सुमिरन जो की जी तोड़ कर हर शौक से मुख मोड़ कर,
वह जाइहै निज वतन पर सुमिरन करो सुमिरन करो।
सबसे बड़ी यह बन्दगी सुमिरन करो सुमिरन करो।
मिलती इसी से सिद्धगी सुमिरन करो सुमिरन करो।
बानी बुज़ुर्गों की कही मुरशिद करो पकड़ौ सही,
दुनियां ए तेरी है नहीं सुमिरन करो सुमिरन करो।
अंधे कहैं मानो सखुन जियतै में रब के जाव बन,
अन्मोल स्वाँसा समय तन सुमिरन करो सुमिरन करो।६।