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२४१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२४८)


पद:-

सेवा सुमिरन कीर्तन पूजन। जप औ पाठ कथा औ दरसन॥

शाँति दीन बनि लूटौ तप धन। अंधे कह सतगुरु दै तन मन।४।


दोहा:-

शुभ कामन में जब तलक मन नहिं धरता धीर॥

अंधे कह तब किमि मिटै भव सागर की पीर॥