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२८० ॥ श्री राम दीन जी॥

जारी........

हम को यही लालसा हर दम चारौं रूप निहारन की।८।


कजरी:-

चलतीं ठुमुकि ठुमुकि आँगन में जनक के जनक दुलारी जी।

कटि किंकिणी पगन पैजनियाँ बाजै प्यारी जी।

भूषण बसन बदन में रचि रचि मातु सँवारी जी।

सुर मुनि दरशन को नित आवैं छबि उर धारी जी।४।

ब्राह्मण क्षत्री वैश्य जाति की सुघर कुमारी जी।

उमिरि में मानौ सबै बराबरि बिधि ने ढारी जी।

खेलैं खेल मनोहर सब मिलि मंगल कारी जी।

कृष्णदास कहैं बाल चरित्र पर हम तन वारी जी।८।