॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
कहेन हम नारायण से जाय। भई प्रभु खता बड़ी दुखदाय॥
कह्यौ प्रभु सुनिये मन चित लाय। बचन भक्तन के बृथा न जाँय॥
प्रेरना हरि की से सब भाय। होत है खेल जक्त गुन गाय॥
कई संघटन होंय जब आय। लेंय औतार तबै हरि जाय॥
मानि लीजै हम तुम्हैं बताय। उबारैं हरि तीनौ जन्माय।३५०।
फेरि जय बिजय होहु तुम आय। पारषद मेरे प्रिय दोउ भाय॥
सुनेन यह बचन हरी के भाय। गई चिन्ता दुख दूरि पराय॥
राज दुइ सै छप्पन युग भाय। किहेन लंका में अति सुख पाय॥
दैत्य सतयुग में ह्वै कर भाय। हिरण्य कश्यप हिरण्याक्ष कहाय॥
वहाँ से हम दोउन को भाय। उबारय्यौ आपै हरि सुखदाय।३६०।
धरय्यौ बाराह रूप हरि जाय। फेरि नर सिंह रूप को भाय॥
आइहैं द्वापर में फिरि भाय। नाम शिशुपाल दन्त बक्राय॥
उबारैं आपै फिरि हरि आय। जाँय बैकुण्ठ वही दर्जाय॥
यहाँ पर कुम्भ करण रवणाय। नाम हम दोउन का है भाय॥
भक्त हित प्रणतपाल हरि भाय। धरत हैं रूप बहुत बिधि आय।३७०।
दया के सागर आप कहाय। देखि दुख हरि से रहा न जाय॥
अधम ते अधम होय जो भाय। लेंय हरि वाको चट अपनाय॥
रहै साँचा तन मन ते भाय। बास पासै में पावै जाय॥
काटि कै कोटि दफ़े शिर भाय। चढ़ायन शिव को मन हर्षाय॥
शीश फिर नये प्रगट भे आय। शम्भु परताप न देर लगाय।३८०।
शम्भु ने दीन्हेव मोहिं चेताय। गया था कछु परदा उर आय॥
तरौ औ तारौ कुल सब भाय। भाग्य अब उदय बिधाता दाँय॥
हमारे मामा तुम कहवाय। कार्य ये जाय के सारो भाय॥
करैं प्रभु इच्छा पूरी भाय। प्रेम तन मन ते देइ लगाय॥
मारिहैं चलिहैं रघुबर धाय। संग तुमरे करिहैं खेलवाय।३९०।
जिधर तुम जैहौ तिधरै जाँय। करैं संग पांच कोश दौराय॥
मारिहैं बान जबै लगि जाय। पुकारय्यौ लछिमन को तब भाय॥
कहैं सीता लछिमनै सुनाय। रहे हैं राम तुम्हैं गोहराय॥
जानि कछु जावैं लछिमन भाय। कहैं मारीच कपट मृग आय॥
मारि प्रभु दीन्हेव उसे गिराय। हाँक यह कपट कि हमैं बुझाय।४००।
न मानैं सीता कहैं सुनाय। बटकही लछिमन यह न स्वहाय॥
खबरि लै आवो जलदी धाय। कहाँ पर मारय्यौ मृग रघुराय॥
चलैं लछिमन एक लीक खँचाय। कहैं याही में रहियो माय॥
निकसिहौ बाहेर जो कहुँ माय। तुम्हैं कोइ राक्षस लेय उठाय॥
चलैं कहि लछिमन खोजन धाय। रहैं बैठी माया की माय।४१०।
जाँय रथ लै हम जंगल भाय। यहाँ से तुमरे साथे धाय॥
बैठि जाय छिपि कै रथ ठहराय। भेष अभ्यागत का करि भाय॥
खेल जब तुम्हरे संग हो भाय। जाँय हम माता के ढिग आय॥
उधारन अधमन के हित भाय। करैं क्या लीला मातु पिताय॥
मांगिहै भिक्षा हम हर्षाय। मातु कहिहैं यहँ लीजै आय।४२०।
जाव नेरे तब देखब जाय। लीक एक बनी चौतरफ भाय॥
कहब मातु सुनिये चित लाय। भीख हम बंधी न लेवैं भाय॥
आइहैं बहरे जब श्री माय। कन्द फल मूल लिये सुखदाय॥
उठाय कै काँधे पर लै धाय। फेरि रथ पर बैठारब जाय॥
उड़ाउब रथ वायू सम भाय। बाटिका अशोक पहुँचब जाय।४३०।
कहै यह भविष्य रावण गाय। तुरत मारीच हिया हर्षाय॥
जारी........