॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
आप बिन कौन सकै बतलाय। बड़ी घबड़ाहत सबन उर छाय।३४७०।
राम सच्चिदानन्द मुद दाय। सुमिरि गुरु करैं ध्यान को भाय॥
ध्यान जब टूटै कहैं सुनाय। लखन के शक्ति लगी उर आय॥
बचन मम मानो सब हर्षाय। राम सब देहैं दुःख हटाय॥
धरय्यौ नर तन जग में हरि आय। करत लीला भक्तन सुखदाय॥
मारि को सकै लखन को भाय। शेष को अंश बड़े वीराय।३४८०।
भ्रात दोउ रावण वंश नशाँय। आइहैं सिया सहित कटकाय॥
दिवस अब थोड़े रहिगे आय। धरो धीरज व्याकुलता जाय॥
शम्भु का रूप पवन सुत आय। संजीवन लैहैं तुरतै जाय॥
नासिका के दोउ स्वरन सुँघाय। धरैं कछु मलिकैं उर पर जाय॥
परै मुख में उठि बैठैं भाय। राम हंसि के उर लेंय लगाय।३४९०।
आज ही पवन तनय सुखदाय। सजीवन लै लौटैं कटकाय॥
भरत को देहैं भेद बताय। शत्रुहन ऐहैं फिर यँह धाय॥
कहैंगे हाल यही सब आय। जौन हम सबै दीन बतलाय॥
समाये सब उर गुरु बचनाय। बोध ह्वै गयो शान्ति गै आय॥
मातु तीनों को शीश नवाय। शत्रुहन जाँय भरत ढिग भाय।३५००।
हाल सब कहैं शान्त ह्वै भाय। सुनैं श्री भरत धीर्य्य उर आय॥
जाँय श्री वशिष्ठ गृह को धाय। कहैं अरुन्धती से हाल सुनाय॥
अवध में शान्ति भई कछु भाय। कटक का हाल सुनो चित लाय॥
प्रभु के शोक को देखि के भाय। भये ब्याकुल कपि औ ऋच्छाय॥
बिभीषण कहैं प्रभु कोइ जाय। वैद्य लंका में एक रहाय।३५१०।
नाम श्री सुखेन वा को आय। आइहैं जहाँ कार्य्य बनि जाय॥
कहैं तब जाम्वन्त उठि भाय। प्रभू हनुमान को देव पठाय॥
कहैं प्रभु पवन तनय सुखदाय। बिपति यह पड़ी कठिन है भाय॥
लंक को जाव बेग से धाय। वैद्य को लावो देंय देखाय॥
पवनसुत चरन परैं हर्षाय। जोरि कर चलन चहैं जस भाय।३५२०।
बिभीषण भेद देंय बतलाय। भवन है हरे रंग सुखदाय॥
मोहारा चारिउ दिशन ते भाय। सुखेन का नाम लिखा समुहाय॥
रंग काले अक्षर भरवाय। पताका भवन के मध्य सुहाय॥
शुकुल रंग अक्षर श्याम हैं भाय। भवन के चौतरफा सुखदाय॥
बृक्ष दस बट के रहे सोहाय। सुनैं औ उठैं पवन सुत भाय।३५३०।
उड़ैं फिर लंक में पहुँचैं जाय। घूमि सब लंक को लेवैं धाय॥
लखैं गृह पृथ्वी पर फिरि आय। परै कोइ बाहेर नहीं दिखाय॥
सुमिरि श्री राम नाम सुखदाय। सुखेन के भवन को लेंय उठाय॥
उड़ैं लै कटक में पहुँचैं जाय। धरैं तहँ भवन को धीरे भाय॥
परैं हरि के चरनन हर्षाय। राम उर में चट लेंय लगाय।३५४०।
सुखेन के भवन बिभीषण जाँय। लखैं तहँ सोय रहे सुख पाय॥
मातु पितु भगिनी दुहिता भाय। नारि सुत सोये अति निद्राय॥
बिभीषण दोउ कर पकरय्यौ जाय। चौंकि उठि बैठे आलस छाय॥
हाल सब देंय बिभीषण गाय। धोय मुख हाथ चलें संग धाय॥
निकसि गृह से जब बाहेर आय। पड़े आश्चर्य में बोलि न जाय।३५५०।
बिभीषण कहैं कौन दुख भाय। शोच जो आप के उर में आय॥
लखन को देखि लेव चलि भाय। भवन फिर लंक में देंय धराय॥
चलैं फिर निकट में पहुँचैं जाय। परैं प्रभु के चरनन हर्षाय॥
राम शिर पर कर देंय फिराय। उठैं औ बैठैं मन हर्षाय॥
दहिन कर पकड़ि के देखैं भाय। बन्द नाड़ी किमि करैं उपाय।३५६०।
स्वाँस नासिका कि परखैं भाय। पता नहिं लगै जाँय मुरझाय॥
जारी........